राजस्थान में किसान आंदोलन | rajasthan kisan andolan GK question answer: राजस्थान की राजनीतिक आर्थिक सामाजिक संरचनाए सामंती रही है.
अंग्रेजों के प्रभाव में आकर शासकों जागीरदारों तथा सामंतों नहीं किसानों का ध्यान किसानों की ओर आकर्षित नहीं हो पाया उन पर लाग बाग बढ़ा दिए
उनसे बेकार लेना आरंभ कर दिया अधिक फसल होने पर भी किसान को जागीरदार द्वारा लाभ न देने आदि कारणों ने राजस्थान में किसान आंदोलनों का आगाज होने की पृष्ठभूमि तैयार कर दी
राजस्थान में किसान आंदोलन पर निबंध | Rajasthan Kisan Andolan Essay In Hindi
बिजोलिया किसान आंदोलन- बिजोलिया वर्तमान भीलवाड़ा जिले में स्थित है यहां किसान आंदोलन 1897 ईसवी से प्रारंभ होकर 1941 ईस्वी तक चला गया भारत का प्रथम किसान आंदोलन का इस आंदोलन का प्रारंभ में नेतृत्व साधु सीतारामदास ने तथा 1916 ईस्वी से विजय सिंह पथिक ने इस आंदोलन का नेतृत्व किया.
इस किसान आन्दोलन को सबसे लम्बा चलने वाला आन्दोलन भी कहा जाता है. यह 44 वर्ष तक चला था. यह भारतीय किसानो की पहली पहल थी, जिसने अपने हक़ की लड़ाई के लिए आगे आने का अदम्य साहस दिखाया.
यहां पर जागीरदार राव कृष्ण सिंह ने जनता पर 84 प्रकार के कार्य लगा रखे थे जिसकी विरोध में किसानों ने आंदोलन प्रारंभ कर दिया 18 संतानों इसी में बिजोलिया की किसानों ने इसकी शिकायत मेवाड़ के महाराणा से की लेकिन उनकी शिकायत पर कोई कार्यवाही नहीं की गई फल स्वरुप जनाक्रोश में वृद्धि हुई.
1903 ईस्वी में राव कृष्ण सिंह ने किसानों par Sawari namak कर एक नया और कर लगा दिया जबकि अकाल के कारण किसानों की स्थिति पहले से खराब थी.
1906 में बिजोलिया के जागीरदार Prithvi Singh बने पृथ्वी सिंह ने प्रजा पर तलवार बंधाई नामक एक और नया कर थोप दिया राव पृथ्वी सिंह की जब लूट और शोषण चरम सीमा को पार कर गया तो 1913 ईस्वी में किसानों ने साधु सीतारामदास फतेह करण चारण व ब्रह्मदेव के नेतृत्व में क्षेत्र में हल चलाने से मना कर दिया.
इससे बिजोलिया ठिकाने को बहुत अधिक आर्थिक हानि उठानी पड़ी इसके बाद जनता पर अत्याचार और बढ़ गए
मेवाड़ सरकार ने अप्रैल 1919 में बिजोलिया की किसानों की शिकायत की सुनवाई हेतु मांडलगढ़ के हाकिम बिंदु लाल भट्टाचार्य की अध्यक्षता में आयोग का गठन किया.
आयोग ने किसानों के पक्ष में अनेक सिफारिशें की किंतु मेवाड़ सरकार ने कोई ध्यान नहीं दिया परिणाम स्वरुप आंदोलन फिर से शुरू हो गया.
फरवरी 1922 ईस्वी में राजस्थान के एजी जी रॉबर्ट हॉलैंड ने किसानों से बातचीत कर 35 प्रकार के लगानों को माफ करने की घोषणा की परंतु दुर्भाग्य से ठिकानों की कुटिलता के कारण यह समझौता स्थाई रूप नहीं ले सका
माणिक्य लाल वर्मा भी इस आंदोलन में जुड़ गए सन 1927 में नए बंदोबस्त के विरोध में किसानों ने अपनी भूमि को छोड़ दिया व ठिकानों पर दवाब बनाना चाहते थे.
ऊंची लगाने का विरोध कर रहे थे और इसमें इन्होंने विजय सिंह पथिक से विचार-विमर्श करने के बाद भूमि छोड़ने का फैसला लिया परंतु किसानों की धारणा के विपरीत ठिकानों द्वारा भूमि की नीलामी कर दी गई.
भूमि को नए किसान मिल गए इसके बाद किसानों ने अपनी भूमि वापस लेने के लिए आंदोलन शुरू कर दिया माणिक्य लाल वर्मा ने किसानों को संगठित किया और एक नई जान फूंक दी.
यह आंदोलन नहीं ऊंचाइयों को छूने लगा फलस्वरुप मेवाड रियासत के प्रधानमंत्री सर विजय राघवाचार्य व किसानों के मध्य 1941 में एक समझौता हुआ और इस समझौते की बदोलत यह आंदोलन समाप्त हो जाता है तथा यह भारत का एकमात्र सबसे लंबा चलने वाला पहला किसान आंदोलन होता है
सीकर किसान आंदोलन
इस किसान आंदोलन का प्रारंभ सी के ठिकाने की नई राव राजा कल्याण सिंह द्वारा 25 से 50% तक भू राजस्व बढ़ोतरी करने से हो गया.
1923 ईस्वी में राव राजा कल्याण सिंह करो में कमी करने के अपने वायदे से अलग हो गए इस कारण राजस्थान सेवा संघ के मंत्री रामनारायण चौधरी के नेतृत्व में किसानों ने इसके विरुद्ध आवाज उठाई 1931 ईस्वी में राजस्थान जाट क्षेत्रीय सभा की स्थापना से इस आंदोलन को एक और नई ऊर्जा प्राप्त हुई.
इस आंदोलन में महिलाओं की भी महत्वपूर्ण भूमिका रही 25 अप्रैल 1934 ईस्वी में कटराथल नामक स्थान पर श्रीमती किशोरी देवी के अध्यक्षता में एक विशाल महिला सम्मेलन का आयोजन किया गया.
25 अप्रैल 1935 ईस्वी को जब किसानों ने लगान देने से इंकार कर दिया तो पुलिस ने कूदन गांव में किसानों पर गोलियां चला दी जिसमें 4 किसान वीरगति को प्राप्त हो गई इस हत्याकांड की गूंज ब्रिटिश संसद तक सुनाई दी.
1935 ईस्वी के अंत तक किसानों की अधिकांशत मांगे मान ली गई इस आंदोलन के प्रमुख नेतृत्व करता सरदार हरलाल सिंह नेतराम सिंह पन्ने सिंह हरूसिंह गौरव सिंह लेखराज और ईश्वर सिंह आदि थे इस प्रकार राजस्थान के इस सीकर किसान आंदोलन काफी हद तक अपनी सफलता में कामयाब रहा.
बेंगू किसान आंदोलन
डेंगू मेवाड़ का एक ठिकाना था यहां की किसानों ने बिजोलिया किसान आंदोलन से प्रेरित होकर 1921 ईस्वी में आंदोलन आरंभ कर दिया यहां के किसान भी लगान बुलावा के अत्याचारों से पीड़ित थी.
राजस्थान मेवाड़ संघ के सदस्यों यथा विजय सिंह पथिक रामनारायण चौधरी एवं माणिक्य लाल वर्मा ने बैंकों की किसानों में जागृति लाने का काम किया.
बेंगू ठिकाने की शिकायतों के समाधान के लिए मेवाड़ के बंदोबस्त आयुक्त ट्रेस के नेतृत्व में एक आयोग बनाया गया बेंगू किसान ट्रेस के निर्णय पर विचार-विमर्श करने के लिए गोविंदपुरा में एकत्रित हुए.
जहां 13 जुलाई 1923 ईस्वी को किसानों पर गोलियां चलाई गई जिसमें रूपाजी कृपा जी नामक दो किसान शहीद हो गए तथा 500 से अधिक किसानों को गिरफ्तार कर लिया गया.
राजे की अत्याचारों से किसानों की मनोबल को गिरने से रोकने के लिए विजय सिंह पथिक ने इस आंदोलन का नेतृत्व थाम लिया मेवाड़ सरकार द्वारा उन्हें 10 दिसंबर 1923 ईस्वी को गिरफ्तार कर जेल में डाल दिया गया इसके बाद आंदोलन धीरे-धीरे बिना नेतृत्व के कारण समाप्त हो गया
बरड़ किसान आंदोलन
बूंदी राज्य के ब्रेड क्षेत्र के किसानों ने अनेक प्रकार की लगाने बेगार उसी लगान की दरों के विरोध में अप्रैल 1922 ईस्वी को आंदोलन का आरंभ कर दिया इस आंदोलन का नेतृत्व नयनूराम शर्मा ने किया.
2 अप्रैल 1923 ईस्वी को डाबी गांव में नयनू राम शर्मा की अध्यक्षता में चल रही सभा पर गोलियां चलाई गई जिसमें नानक भील व देवलाल गुर्जर शहीद हुए.
इस आंदोलन में राजस्थान सेवा संघ ने भी महत्वपूर्ण भूमिका का निर्वाहन किया 1927 ईस्वी के पश्चात राजस्थान सेवा संघ अंतर्विरोध के कारण बंद हो गया तत्पश्चात बूंदी का आंदोलन भी समाप्त हो गया
नीमूचणा किसान आंदोलन
यह आंदोलन लगान लागबाग व बेगार के विरुद्ध 14 मई 1925 ईस्वी को अलवर राज्य के किसानों के लगान वर्द्धि के विरुद्ध बानगोर तहसील के निमूचणा गांव मैं एक किसानों के द्वारा सभा का आयोजन किया गया.
जिस पर ब्रिटिश सरकार ने बिना पूर्व सूचना के गोलियां चलवा दी जिसमें 156 व्यक्ति मारे गए तथा सरस्वती घायलों के महात्मा गांधी ने इस काम को जलियांवाला बाग हत्याकांड से भी अधिक भयानक बताया तथा इसे दोहरी डायर शाही की संज्ञा दी.
भारत के प्रमुख किसान आंदोलन 18वीं 19वीं शताब्दी :-कारण, प्रमुख विद्रोह
वारेन हेस्टिंग्स और कॉर्नवालिस द्वारा किए गए बदलाव भू राजस्व प्रशासन में किसी प्रकार का सुधार नहीं ला सके बल्कि जमीदार वह साहूकारी जैसी नई शोषण व्यवस्थाएं उत्पन्न हो गई इन सब में किसानों के हितों की अपेक्षा की गई परिणाम स्वरूप कई स्थानों पर किसान आंदोलन हुए.
1. अंग्रेजों की कठोर भू-राजस्व नीतियां:- ईस्ट इंडिया कंपनी की भू-राजस्व नीतियां अत्यंत कठोर थी इनके द्वारा लागू स्थाई बंदोबस्त रैयतवाड़ी महालवाड़ी बंदोबस्त में किसानों से भूमि का स्वामीत्व तो छीन कर अपनी जमीन पर किराएदार बना दिया
इन व्यवस्थाओं द्वारा किसानों से ऊंची दरों पर लगान वसूली गई प्रशासन ने राजस्व वसूली की जिम्मेदारी अपने ऊपर ना रखकर जमीदार वर्ग का सृजन किया जमीदारों की निष्ठा एवं लालसा ने किसान शोषण को व्यापक बना दिया.
2. लगान की दरों का आसमान छूना:- प्रत्येक प्रकार की भू-राजस्व बंदोबस्त में लगान की दर बहुत ऊंची थी किसान की उत्पादन का 2 /3 भाग कर के रूप में वसूला जाता था
जो कुछ बचता था उससे ही किसान गुजारा करते थे दूसरी तरफ भूमि के मालिक किसान ऊंची लगान ना चुका पाने के कारण भूमि से बेदखल हो रहे थे ऐसे उत्पीड़न से किसानों में असंतोष उत्पन्न होना स्वाभाविक था.
3. अवैधानिक करो की अधिकता:- जमीदार व साहूकार किसानों से बलपूर्वक पथ कर टोल कर दाखिल कर आदि अनेक प्रकार की अवैध कर वसूल करते थे इन अवैध करो को समय पर नहीं चुकाने पर किसानों तथा उनके परिवार की महिलाओं का घोर उत्पीड़न किया जाता था.
4. नए शोषक वर्ग अर्थात जमीदार वर्ग का उदय:- जमीदारों एवं साहूकारों के रूप में अंग्रेजों द्वारा किसानों का एक नया शोषक वर्ग तैयार कर लिया गया यह वर्ग भू राजस्व वसूली तथा ऋण वसूली के लिए किसानों पर अत्याचार करते थे
वहीं दूसरी और जमींदारों ने भी कर वसूली के लिए एजेंट नियुक्त किए इस प्रकार एक नया बिचौलिया वर्ग जिसने कानूनी एवं गैर कानूनी तरीकों से किसानों का शोषण किया.
5. किसानों का भूमिहीन कृषक बनना:- जब किसान लगान नहीं दे पाते थे तो उन्हें भूमि से बेदखल कर दिया जाता था कुछ किसान साहूकार का ब्याज भरने व अकाल पड़ने पर भी अपनी जमीन बेचने को मजबूर थे.
6. खेती की दुर्दशा अकाल की स्थिति:- ब्रिटेन की औद्योगिक क्रांति के फलस्वरूप उद्योग धंधे समाप्त हो गए इसके परिणाम स्वरूप भारतीय ग्रामीण व्यवस्था जो कि कृषि एवं लघु उद्योग का मिश्रण थी केवल कृषि पर आधारित रह गई
इससे खेती पर दवाब बढ़ा खेत छोटे होते गये तथा पैदावार मे भी कमी होने लगी अकाल की स्थिति ने किसान को और अधिक आर्थिक रूप से कमजोर बनाया꫰
7. कृषि का वाणिज्य करण:- भारत में अंग्रेजों द्वारा व्यापारिक व वाणिज्य फसलों को प्रोत्साहन देने के कारण खाद्यान्न फसलों की कमी होने लगी
इससे व्यापारी वर्ग को लाभ हुआ परंतु किसान वर्ग में भुखमरी और गरीबी बढ़ गई जिसने जन आक्रोश को बढ़ावा दिया.
8. किसानों की ऋण ग्रस्ता:- ज्यों-ज्यों भारत में ब्रिटिश सत्ता का विस्तार होता गया सरकार का खर्च भी बढ़ता गया लगान की दरें बढ़ाई गई लगान चुकाने.
वह सामाजिक कार्यों के लिए किसानों ने साहूकारों से ऋण लेना भी प्रारंभ कर दिया ब्याज दर अधिक होने के कारण अकाल पड़ने के कारण तथा अत्यधिक करो के कारण किसान दिनों दिन ऋण में डूबते जा रहे थे.
10. कृषि के विकास या वैज्ञानिकीकरण से सरकार की भी विमुक्ता:- ईस्ट इंडिया कंपनी शासन प्रारंभ होने से पहले साहूकार किसानों के किसानों से कर वसूली में कुछ हद तक छूट देते थे.
किसानों से जमीने नहीं ली जाती थी परंतु अंग्रेजी शासन की स्थापना के बाद इनकी जमीन तब तक इनके पास रहती जब तक वह कर समय पर अदा कर देते थे.
दूसरी ओर ब्रिटिश नीतियों में कृषि कार्यों का विकास या कृषि का विकास केवल अपने हित के लिए किया गया किसानों के हितों को नजरअंदाज करते रहे.
11. साहूकारों की मनोवृति में भी विकृति:- ईस्ट इंडिया कंपनी शासन प्रारंभ होने से पहले साहूकार किसानों के प्रति उदारता की भावना रखते थे तथा ऋण वसूली के लिए जमीन नहीं चीनते थे.
ब्रिटिश कानून आने पर ऋण ग्रस्त किसानों को जेल में बंद करने तथा भूमि जब करने का प्रावधान किया गया इन सब कानूनों को साहूकारों ने भी अपना लिया अब किसानों को धोरी मार पड़ने लगी.
12. श्रमिक आंदोलनों का प्रभाव:- ब्रिटिश शासन में मजदूरों द्वारा ट्रेड यूनियनों की स्थापना की गई इन्होंने अपने अधिकारों के लिए श्रमिक आंदोलन किए इन आंदोलनों से किसानों को भी शोषण के विरुद्ध लड़ने की प्रेरणा मिली.
भारत के प्रमुख किसान आंदोलन - peasant movement in india
1. बंगाल का कृषक विद्रोह- 1855 से 1885:-
बंगाल के संथाल किसानों द्वारा नील की खेती के विरोध में किया गया इसका प्रमुख कारण किसानों से जबरन इंडिगो की खेती करवाना था.
संथाल किसानों ने बागान मालिकों के साथ-साथ अपनी जमीन हड़पने वाले जमीदारों व साहूकारों के विरुद्ध भी विद्रोह किया था परिणाम स्वरुप 1885मे सरकार ने बंगाल काश्तकारी अधिनियम पारित किया
जिसने किसानों को खोए हुए भूमि अधिकार तथा निश्चित लगान वसूल करने की व्यवस्था का पुनः स्थापित किया साथ ही बागान मालिकों पर अंकुश लगाते हुए धमकी व डर के जरिए नील की खेती करवाने पर पाबंदी लगा दी गई.
ब्रिटिश सरकार ने विद्रोह को सख्ती से दबा दिया तथा दक्कन कृषक राहत अधिनियम पारित किया जिसके तहत कर्ज अदा न करने की स्थिति में मराठा किसानों को ना बंदी बनाया जाएगा और ना ही जमीने हड़पी की जाएगी.
जिसने किसानों को खोए हुए भूमि अधिकार तथा निश्चित लगान वसूल करने की व्यवस्था का पुनः स्थापित किया साथ ही बागान मालिकों पर अंकुश लगाते हुए धमकी व डर के जरिए नील की खेती करवाने पर पाबंदी लगा दी गई.
2. मराठों का कृषक विद्रोह:-
कंपनी द्वारा भू राजस्व में वृद्धि अनावृष्टि तथा साहूकारों के अत्याचारों के कारण संथालओं की भांति मराठा किसानों ने भी जमीदारों व साहूकारों के विरुद्ध विद्रोह कर दिया किसानों ने जगह-जगह साहूकारों के मकान जला डाले इन का मुख्य लक्ष्य साहूकारों के कब्जे से ऋण संबंधी कागजात व इकरारनामो को नष्ट करना था.ब्रिटिश सरकार ने विद्रोह को सख्ती से दबा दिया तथा दक्कन कृषक राहत अधिनियम पारित किया जिसके तहत कर्ज अदा न करने की स्थिति में मराठा किसानों को ना बंदी बनाया जाएगा और ना ही जमीने हड़पी की जाएगी.
3. पबना का विद्रोह 1872 से 1873 तक
पबना के किसानों द्वारा 1872 में बढ़े करो का विरोध करते हुए उन्हें रद्द करने तथा कर ना देने पर जमीन से बेदखल करने का विरोध करते हुए.
आंदोलन किया गया परंतु ब्रिटिश सरकार ने एक भी मांग नहीं मानी तथा विद्रोह को दमनकारी नीति से कुचल दिया.पबना वर्तमान बांग्लादेश में स्थित है.
कालांतर में कुकाओ द्वारा ब्रिटिश सरकार के समानांतर अपनी हुकूमत पंजाब में स्थापित करने का प्रयास किया फलस्वरूप सरकारी सैनिकों ने उनको मौत के घाट उतार दिया तथा राम सिंह को बंदी बनाकर रंगून भेज दिया जहां 1885 में उनकी मृत्यु हो गई.
4. कूका आंदोलन -1863
पश्चिमी पंजाब में ब्रिटिश प्रशासन की राजस्व व्यवस्था का विरोध करने के लिए 1863में नामधारी सिखों ने रामसिंह कूका के नेतृत्व में आंदोलन चलाया इन्होंने ब्रिटिश सत्ता के विरुद्ध कुक उठाई थी इसलिए ऐसे कूका आंदोलन कहा जाता है.कालांतर में कुकाओ द्वारा ब्रिटिश सरकार के समानांतर अपनी हुकूमत पंजाब में स्थापित करने का प्रयास किया फलस्वरूप सरकारी सैनिकों ने उनको मौत के घाट उतार दिया तथा राम सिंह को बंदी बनाकर रंगून भेज दिया जहां 1885 में उनकी मृत्यु हो गई.
5. असम ,अहोम के किसानों का विद्रोह:-
असम के किसानों द्वारा नौगांव जिले के पूला गुड़ी गांव के किसानों आदिवासी जनजाति द्वारा किया गया अंग्रेजी सरकार द्वारा इनकी जमीन हड़पने तथा उस पर जबरदस्ती अफीम की खेती करवाने के विरोध में आंदोलन कर दिया इसे कुकियो का विद्रोह भी कहते हैं लंबे संघर्ष के बाद कुकियो ने आत्मसमर्पण कर दिया.6. भोपला किसान विद्रोह:-
कृष्णा तथा गोदावरी नदियों के डेल्टा में स्थित मालाबार क्षेत्र में मुसलमान किसान रहते थे जिन्हें भोपला किसान कहा जाता था यह किसान चाय व कॉफी के बागानों में खेती किया करते थे.
वो लोग मुसलमान थे जबकि जमीदार व साहूकार वर्ग हिंदू था इस जमीदार वर्ग के शोषण के कारण यहां के किसानों ने विद्रोह किया जो बाद में सांप्रदायिक विद्रोह में बदल गया सरकार द्वारा निर्ममतापूर्वक इसको कुचल दिया गया.
7. पुणे व अहमदनगर किसान आंदोलन:-
मुंबई प्रदेश में भू राजस्व की निरंतर वृद्धि होने के कारण प्रदेश के काश्तकारों की स्थिति अत्यंत दयनीय हो गई थी इस कारण यहां के किसान सिर से पैर तक कर्ज में डूब गए.
यह लोग अपने उत्पादन से 18 गुना अधिक कर्ज में डूबे थे इस कारण एक हिंसक आंदोलन किसानों द्वारा किया गया परंतु इसका कोई भी सकारात्मक परिणाम नहीं निकला.