स्वामी विवेकानंद का प्रेरक प्रसंग - Vivekanand Ke Prerak Prasang
स्वामी विवेकानंद बेलूर मठ के निर्माण कार्य और शिक्षादान के कार्य में बहुत व्यस्त थे. निरंतर भागदौड़ और कठिन श्रम करने के कारन वे अस्वस्थ हो गये थे. चिकित्सकों ने उन्हें जलवायु परिवर्तन तथा विश्राम करने के लिए जोर दिया.
विवश होकर वे दार्जिलिंग चले गये. वहा उनके स्वास्थ्य में धीरे धीरे सुधार हो रहा था. तभी उन्हें समाचार मिला कि कोलकाता में प्लेग व्यापक रूप से फ़ैल गया हैं. प्रतिदिन सैकड़ों लोगों की मृत्यु हो रही हैं. यह दुखद समाचार सुनकर क्या महाप्राण विवेकानंद स्थिर रह सकते थे.
वे तुरंत कोलकाता लौट आए और उसी दिन उन्होंने प्लेग रोग में आवश्यक सावधानी बरतने का जन आदेश दिया. अपने साथ तमाम सन्यासियों और ब्रह्मचारियों को लेकर वे रोगियों की सेवा में जुट गये. कोलकाता में भय तथा आतंक का राज्य फैला हुआ था.
स्त्री पुरुष अपने बच्चों को लेकर प्राण बचाने के उद्देश्य से भागे जा रहे थे. ब्रिटिश सरकार ने प्लेग रोग से बचाव के सम्बन्ध में कठोर नियम जारी कर दिया था. उससे लोगों में भारी असंतोष था.
इस परिस्थति का सामना करने की भारी चुनौती स्वामी जी के सामने थी. इस कार्य में कितने धन की आवश्यकता होगी और वह कहा से आएगा, इस बात की चिंता करते हुए किसी गुरुभाई ने स्वामी जी से प्रश्न किया.
स्वामी जी रूपये कहा से आएगे. स्वामी जी ने तत्काल उत्तर दिया. यदि जरूरत पड़ी तो मठ के लिए खरीदी गई जमीन भी बेच डालेगे. हजारों स्त्री पुरुष हमारी आँखों के सामने असहनीय दुःख सहन करेगे और हम मठ में रहेगे.
हम सन्यासी है आवश्यकता होगी तो फिर वृक्षों के नीचे रहेगे, भिक्षा द्वारा प्राप्त अन्न वस्त्र हमारे लिए पर्याप्त होगा.
स्वामी जी ने एक बड़ी जमीन किराए पर ली और वहां कुटियाँ का निर्माण किया. जाति, वर्ण का भेद छोड़ प्लेग के असहाय मरीजों को वहां लाकर उत्साही कार्यकर्ता सेवा कार्य में रत हुए. स्वामी जी भी वहां उपस्थित रहकर सेवा कार्य करने लगे.
शहर की गंदगी साफ़ करना, औषधियों का वितरण करना, दरिद्र नारायणों की अति उत्साह से सेवा करने में सभी कार्यकर्ता मन से लग गये. यत्र जीव तत्र शिव मंत्र के ऋषि विवेकानंद अपनी सेहत की परवाह न करते हुए स्वदेशवासियों को शिक्षा देने लगे कि नर को नारायण मान कर सेवा करना मानव धर्म हैं.