बेणेश्वर धाम का इतिहास | Beneshwar Dham History In Hindi: आदिवासियों का कुम्भ कहे जाने वाला बेणेश्वर का मेला राजस्थान के डूंगरपुर में लगता हैं. बेणेश्वर धाम का इतिहास में हम इस मेले के इतिहास कहानी आदि के बारें में Beneshwar Dham History In Hindi में जानने वाले हैं. यहाँ पर राजस्थान के अतिरिक्त मध्यप्रदेश तथा गुजरात से बड़ी संख्या में आदिवासी दर्शन के लिए आते हैं.
बेणेश्वर धाम का इतिहास | Beneshwar Dham History In Hindi
मैंने गत वर्ष अखबार में पढ़ा था. बेणेश्वर धाम. यहाँ माघ शुक्ल एकादशी से कृष्ण पंचमी तक मेला भरता हैं. गुजरात, मध्यप्रदेश तथा राजस्थान के लोग इसमें भाग लेते हैं. समाचार बहुत ही रोचक था. मेरे मन में मेला देखने की प्रबल इच्छा जाग उठी.
मैंने तैयारी तो कर ही रखी थी. आखिर माघ शुक्ल एकादशी आ ही गई. मैं बेणेश्वर घाम के लिए रवाना हुआ. चांदनी रात थी. मैं बस में सवार था. बस अरावली पहाड़ियों को चीरती हुई बेणेश्वर धाम की ओर बढ़ रही थी.
यह तीर्थ स्थान डूंगरपुर और बाँसवाड़ा जिलों की सीमा पर स्थित हैं. इसे आदिवासियों का कुम्भ भी कहा जाता हैं. बस बाएँ मुड़ी मावजी महाराज नी जे की आवाज के साथ मेरी नीद खुल गई. लोग आपस में बाते कर रहे थे.
अरे हाबलो आवीग्यू, हवे तो बानेश्वर धाम १०० किलोमीटर दूर रह ग्यू.
यह तो सोम, जाखम तथा माही नदियों के संगम पर बने एक टापू पर स्थित हैं. न इयाँ बनैला शिवजी ना मदर नै बेनका ईश्वर कुँए हैं. अरे इसलिए तो इस स्थान का नाम बेणेश्वर पड़ा हैं.
सब हंस पड़े, कुछ देर में साबला आ गया. बस रूक गई. आज माघ शुक्ल एकादशी है. आज से मेला शुरू हो रहा हैं. यह दस दिन तक चलेगा पंचमी को पूरा होगा, मुख्य मेला पूर्णिमा को रहता हैं.
मैं बेणेश्वर टापू पर पंहुचा, यह लगभग २४० बीघा क्षेत्र में फैला हुआ टापू हैं. यहाँ कई मन्दिर हैं. मेरी नजर शिलालेखों पर पड़ी.
इसके बाद मैंने शिव मंदिर देखा. इसका निर्माण डूंगरपुर के महारावल आसकरण ने लगभग 500 साल पहले करवाया था. यह बहुत ही पुराना हो गया था. इसलिए इसकी मरम्मत करवाई गई थी. कहते है इसी मंदिर में बैठकर मावजी महाराज ने अपना चोपड़ा लिखा था.
Beneshwar Dham History In Hindi
मावजी इस क्षेत्र के प्रसिद्ध संत हुए हैं. इनका जन्म १८ वीं शताब्दी में साबला डूंगरपुर में हुआ था. लोग इनकों कृष्ण अवतार मानते हैं. मावजी महाराज ने सोमसागर, प्रेमसागर, मेघसागर, रत्नसागर एवं अंनतसागर नामक पांच ग्रंथों की रचना की.
इनको वागड़ी भाषा में चोपड़ा कहा जाता हैं. इनके चोपड़े में अनेक भविष्यवाणीयां लिखी हुई हैं. ऐसा विश्वास है कि इस चोपड़े की भविष्यवाणीयां अब तक सही साबित हुई हैं.
मुझे यह भी बताया गया है कि मावजी की मुख्य गादी साबला में हैं. मावजी के बाद उसकी पुत्रवधू जनकुंवरी गादी पर बैठी. वह लगभग ८० साल तक गादीपति रही.
उन्होंने हरी मंदिर बनवाया था. कहा जाता हैं कि यह वह स्थान है जहाँ मावजी महाराज बैठकर अपनी साधना करते, बांसुरी बजाते तथा गायें चराया करते थे.
बेणेश्वर टापू पर वागड़ क्षेत्र के लोगों ने ब्रह्माजी का मंदिर भी बनवाया हैं. इस प्रकार यहाँ त्रिदेव के मंदिर हैं. इनके अलावा यहाँ अन्य देवों के मंदिर भी बने हुए हैं.
साबला गादी के महंत जी ने हरिमंदिर का झंडा फहराकर मेले की शुरुआत की. चारो तरफ मावजी महाराज की जय जयकार हो रही थी. बेणेश्वर टापू पर चहल पहल बढ़ गई थी.
आदमी ही नहीं औरते भी बालक ही नहीं बालिकाएं भी जवान ही नहीं बूढ़े भी, गरीब ही नहीं अमीर भी. यह सब प्रकार के लोग थे. अब तो यहाँ विदेशी पर्यटक भी खूब आने लगे हैं.
मैं यहाँ एक दिन रूककर लौट जाना चाहता था. किन्तु यहाँ के अनोखे वातावरण ने मुझे पूर्णिमा तक रूकने के लिए मजबूर कर दिया. मेला स्थल पर दुकानें और मनोरंजन के भरपूर साधन थे. दुकानों में खेती और गृहस्थी के लिए आवश्यक वस्तुएं थी.
वहां बच्चों के लिए गुब्बारे और खिलौने, धनुष और तीर झूले चकरी और सर्कस मदारी तथा जादू के खेल भी थे. सब उनका आनंद ले रहे थे. मेले में पुलिस विभाग के कर्मचारी तथा बालचर अपनी सेवाएं दे रहे थे.
इस मेले में विभिन्न संस्कृतिक कार्यक्रम चल रहे थे. उनमें अलग अलग संस्कृति की झलक थी. सभी धर्मों के प्रति सम्मान था. खेल प्रतियोगिताओं का आयोजन किया गया.
यहाँ तीरंदाजी, गैर नृत्य एवं रासलीला के कार्यक्रम लोगों के लिए आकर्षण के केंद्र थे. उनके कलाकारों की रंग बिरंगी भडकीली पोशाके सबका ध्यान खीच रही थी. आदिवासी लड़के लड़कियाँ समूह में गीत गा रहे थे.
ये गीत वागड़ी भाषा में थे. चाहे वे गीत मुझे समझ न आए हो, किन्तु उनके सुरीले स्वर को मैं अभी तक नहीं भुला पाया हूँ. उन गीतों में उनके सीधे सादे जीवन की झलक दिखती हैं.
यह स्थान डूंगरपुर जिले की साबला पंचायत समिति में स्थित हैं. अतः इस मेले की सारी व्यवस्था उसी की जिम्मेदारी हैं. इसमें डूंगरपुर और बाँसवाड़ा जिले के प्रशासन का पूरा सहयोग रहता है. मुझे पता ही नहीं लगा और पूर्णिमा आ गई.
धूमधाम से महंतजी की सवारी निकली. गाजे बाजे ढोल ढमाके, इकतारा, तम्बूरा, ढोलक, मंजीरे आदि की धुन सुनते ही बनती थी. रंग बिरंगी पताकाएं थी. सवारी सोम माहीसागर संगम स्थल पर आबुदरा नामक स्थान पर पंहुचा. महंतजी हरि मंदिर में पधारे. वहां उन्होंने पूजा अर्चना की.
किसी ने बताया था कि यहाँ की रग रग में यह पंक्ति रची बसी हैं. माहिसागर नु पाणी नें मावजी नी वाणी एक बार आकाश मावजी के गगनभेदी जयकारों से गूंज उठा. पूर्णिमा के दिन आदिवासियों की संख्या सबसे अधिक थी.
कई लोगों के हाथ में सउदी थी. उनमें उनके परिवार के उन लोगों के फूल थे, जिनका बीते वर्ष में निधन हो गया था. उन्होंने संगम स्थल पर अपनी युगों पुरानी परम्परा के अनुसार उन अस्थियों को प्रवाहित किया. उसके बाद उन्होंने स्नान किया खाना बनाकर खाया और घर लौट आए. मैं भी बेणेश्वर घाम की मीठी यादों को लेकर लौट आया.