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पिंजरे में बंद एक पक्षी की आत्मकथा | Autobiography Of A Bird In A Cage In Hindi

पिंजरे में बंद एक पक्षी की आत्मकथा | Autobiography Of A Bird In A Cage In Hindi नमस्कार मित्रों आज का निबंध एक पक्षी की आत्मकथा पर दिया गया हैं. जो लोहे के बनें पिंजरे में कैद हैं वह क्या करना चाहता हैं उसके मन में खुले गगन में उड़ने के प्रति क्या हैं. आज के ऑटोबायोग्राफी एस्से स्पीच में हम विस्तार से पढेगे.

पिंजरे में बंद एक पक्षी की आत्मकथा | Autobiography Of A Bird In A Cage In Hindi

पिंजरे में बंद एक पक्षी की आत्मकथा | Autobiography Of A Bird In A Cage In Hindi

नमस्कार साथियों आज हम हमेशा से ही गुलामी की जंजीर में अपना जीवन व्यतीत करने वाले पक्षी की आत्मकथा को इस लेख में प्रस्तुत करेंगे. एक जीव के लिए गुलामी कितनी बुरी होती है, इसका उदाहरण हम अपने आप को मानकर अंग्रेजो की गुलामी को इससे जोड़ सकते है.

हालाँकि इतनी कुरुरता हमारे साथ तब भी नही बरती जाती थी, जितनी हम एक पक्षी के साथ उसे पिंजरे में बंद करके करते है, केवल समय पर दाना-पानी मिल जाना ही जीवन नहीं होता है.

पर हम मानव अपने लिए नादान पक्षी को पिंजरे में बंद करके रखते है, तथा उसे अपना पालतू बताते है. अपनों से दूर तथा अपने माहौल से दूर रहने वाला पक्षी अपने आप के साथ अकेले में कैसा महसूस करता है, वो केवल वो पक्षी ही जान सकता है.

हरेक सजीव प्राणी भावनाओं से युक्त होता हैं. सभी जीवन को अपने ढंग से स्वतंत्रता से जीना चाहते हैं क्योंकि स्वतंत्रता के अभाव में जीवन औरों के इशारों पर चलने जैसा हो सकता हैं. 

यकीनन ऐसे जीवन की चाहत कोई भी नहीं रखेगा. मगर यह सब समझते हुए कि जीवों को आजादी से अधिक प्रिय कुछ नहीं होता हैं. हम मूक जीवों को बंदी बनाकर घर की शोभा बढ़ाने का घिनोना कृत्य करते हैं.

यह ठीक वैसा ही हैं जैसे इंसान को जेल में बंद कर देना. हम समाज और अपनों से इतर निराशा और गुमनामी के बीच स्वयं की पहचान जिस तरह खोते जाते हैं. वैसे ही पिंजरे में बंद एक चिड़ियाँ की यही हालत होती हैं. 

मैं एक नन्ही सी चिड़ियाँ हूँ अभी अभी ही मैंने अपने पंखों के सहारे उड़ना सीखा हैं. अमूमन मैं नीम के पेड़ पर बने घौसले में बैठी आस पास के नजारे को निहारती रहती हूँ. माँ सुबह का दाना देकर भोजन की तलाश में काफी दूर निकल जाती हैं ऐसे में मुझे अपनी सखियों के साथ अकेले में ही दिन गुजारना पड़ता हैं.

सावन का महीना था आकाश में घने बादल थे मंद मंद ठंडी हवा चल रही थी, सुहावने मौसम के बीच मेरा मन भी थोड़ी दूर उड़ने का हुआ. मैं अपनी सखा के साथ आज माँ की पहली बार अवज्ञा कर रही थी. 

घर से निकलते वक्त रोज माँ दिनभर घर में रुकने को कहकर जाया करती हैं. मगर आज के मौसम ने मुझे खुले आसमान में उड़ने के लिए वशीभूत कर दिया.

एक डाल से दूसरी डाल पर कूदते फांदते हमारा मन कुछ दूर तक उड़ने का हो चला. हमारे घर से चंद खेत दूर एक नदी बहती हैं, आस पास के सारे पशु पक्षी यही पानी पीने आते हैं. 

अतः आज हमनें भी नदी के तट पर जाकर अपनी प्यास मिटाने का निश्चय किया. मैं अपनी सखा के साथ हवा के सहारे उड़ने लगी. उड़ने में वाकई इतना आनंद आता हैं काश मैं यह पहले जानती तो रोज इसे पाती.

खैर हम नीद के तट पर उतरी पर एक चट्टान पर बैठकर प्यास शांत की. थोड़ी चहल पहल के लिए घनी घास की तरफ आगे बढ़ी ही थी. कि हमारे पावों को मानों किसी ने जकड़ लिया. 

भरपूर कोशिश करने के बाद भी पंजे पूरी तरफ फंस चुके थे. सच्चाई का एहसास तब हुआ जब एक चिड़ीमार भागता हुआ हमारी तरफ आया और हमें एक जाल में लपेट कर चल पड़ा.

पहली बार माँ के मना करने के बावजूद घर के बाहर कदम रखा और जीवन का खतरा मानों इतंजार ही कर रहा था. घर पर माँ इन्तजार करेगी हमारा क्या होगा. आखिर हमने क्या गुनाह किया जिसका प्रायश्चित आज इस रूप में प्राप्त हो रहा हैं.

हमने इंसान को पहली बार देखा वो भी ऐसे अवसर पर, माँ को तो पता था फिर हमें इंसानों की बस्ती के पास क्यों जन्म दिया. इस तरह के ख्याल मन ही मन में सताए जा रहे थे.

जाल में छटपटाहट के मारे पंजों और पंखों में तेज दर्द भी हो रहा था. मगर इस स्वार्थी दुनिया में हमारे विरह को सुनने वाला कौन था. इस भले इंसान के भी बाल बच्चें होंगे क्या उसे अपने बच्चों से लगाव नहीं हैं. 

क्या यह नहीं जानता कि कोई उसके बच्चों को उठा ले जाए तो फिर इस पर क्या बीतेगी. मगर अब इन सब बातों का क्या औचित्य रह गया था.

चिड़ीमार हम दोनों को जाल में बंद कर कंधे पर धरे तेजी से शहर की तरफ बढ़ रहा था. शहर में जाकर उसने चंद कौड़ियों में हमें बेच दिया. अब तक इतना सुकून था कि मैं अकेली नहीं हूँ आफत की इस घड़ी में मेरी सखा भी मेरे साथ हैं. मगर दुर्भाग्य फिर से जगा हमें दो अलग अलग लोगों ने खरीद लिया और अपने अपने घर ले गये.

एक चिड़ियाँ होकर बंद पिंजरे में कार में महाशय अपने घर तक लाए. मन ही मन सोच रही थी हे मानुष मुझे अपना ठिकाना बता देते मैं आपके पेट्रोल के खर्च को कम देती हैं. 

भले ही मन व्यतीत हैं पर मेरे पंखों ने उड़ना नहीं भुला हैं मैं आपके घर तक ही आ जाती हैं. मनुष्यों के प्रति मेरे जेहन में गहरा विद्वेष भर.चूका था.

मगर दुर्भाग्य की कड़ी में एक सौभाग्य का पल आया जब मैंने सज्जन महाशय के घर में नन्हे से बच्चें को देखा पता नहीं क्यों अपनत्व के भाव में चोट का दर्द यकायक कम हो गया. 

मुझे पिंजरे में घर लाया गया और खिड़की के पास रख दिया. घर के सदस्य बारी बारी से आकर देखने लगे मानों मैं किसी मंगल ग्रह की प्राणी हूँ जो इन्हें दर्शन देने की खातिर यहाँ आई हूँ. 

वाह रे मानव तू और तेरी यह विडम्बना. मैं उसी चिड़ियाँ की छोटी बच्ची हूँ जो बालपन में तेरे आंगन में दाना चुगने आया करती थी. मैंने अपने दिल को झूठी दिलासा दी कि जो भी हैं जैसा भी हैं तेरे लिए यह पिंजरा ही तेरा घर हैं. 

जो कुछ मिले अहो भाग्य समझकर खा लेना और इन घर वालों की कौड़ियों का फर्ज अदा करने की खातिर चाह्चहाते रहना, मगर अब भी माँ की याद बहुत सता रही थी. 

पता नहीं वो किस हाल में होगी. मेरी सखा को कौन ले गया वो अभी जीवित हैं या नहीं. बस ईश्वर से उसके स्वस्थ और दीर्घायु होने की कामना करती रही.

कुछ दिन तक पिंजरे में रहना अटपटा लगा मगर धीरे धीरे आदत हो गई. दो कदम दाएं और दो ही बाएँ यही मेरा अब गगन था. इस गगन को नापने भला पंखों को क्यों तकलीफ दू इसलिए हल्के हल्के दो कदम भरकर ही ये दूरियां नाप डालती थी. 

घर का छोटा बच्चा मुझसे बेहद लगाव रखता था. वह सदैव अपने खाने से पूर्व मुझे खिलाता था. जब भी वह दीखता मुझसे आवाज किये बगैर मानों रहा ही नहीं जाता.

कुछ महीनों के बाद सब कुछ सामान्य सा लगने लगा. घरवाले भी मेरा ख्याल रखते थे. एक दिन बच्चें को क्या ख्याल आया उसने अपने साथ खेलने के लिए मुझे पिंजरे से बाहर निकाल दिया. 

मेरे लिए यह कल्पना से परे था मगर उस समय यही सच्चाई थी. मैंने बच्चें को लाख लाख धन्यवाद दिए और नन्हे नन्हे कदम भरकर उसके कदमों को चूमा. तभी अहसास हुआ कि मेरे पंख है और माँ ने उड़ना भी सिखाया था. कोशिश की तो झट से बच्चें के कंधे पर बैठ गई. वह भी पुस्कारने लगा.

इस तरह मैं कुछ घंटे तक खेलती रही. अब घर का वह बच्चा मेरे लिए भाई जैसा था. उसे धोखा देकर मैं अपनी माँ के पास जा सकती थी. मगर मैं इंसानों की तरफ धोखेबाज नहीं हो सकती. 

मुझे अपनी माँ की शिक्षाओं का पालन करना था. भाई ने जिस अपनत्व से मुझे पिंजरे से आजाद किया मैं स्वतः जाकर उसमें बैठ गई. कुछ दिन तक मेरी दिनचर्या ऐसे ही चलती रही.

हम दोनों खूब खेलते और मौज मस्ती करते. जब घरवालों ने इस तरफ ध्यान दिया तो मेरे लिए उनके मन में एक सवेदना जगी. अब मुझे पिंजरे में बंद नहीं किया गया. बल्कि मैं स्वयं उनके ऋण की अदायगी में पिंजरे में जाकर बैठ जाती. जब हमारे खेलने का वक्त होता तो बाहर आ जाती. एक दिन मेरा मन हुआ माँ से मिल आहू. 

थोड़ी कठिनाई के बावजूद मैंने अपना घर खोज ही निकाला. माँ उदास दुबक कर बैठी थी. उसने जैसे ही मुझे देखा मानों स्वयं की आँखों पर भरोसा नहीं कर पा रही थी. 

हमने कुछ देर तक बातें की मैंने सम्पूर्ण घटनाक्रम माँ को बताया. और माँ से आज्ञा लेकर पुनः अपने मालिक के घर आ गई. इस तरह मुझे कई बार मिलने का मौका भी मिल जाता था. 

मगर आज भी जब अपनी सखा के बारे में सोचती हूँ तो मन उदास हो जाता हैं पता नहीं आज वो किस हाल में होगी. उससे मिलने को हमेशा हताश रहती हूँ.

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